होम्योपैथी के साथ मेरे अनुभव और एक समेकित चिकित्सा पद्धति की आवश्यकता

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होम्योपैथी के साथ मेरे अनुभव और एक समेकित चिकित्सा पद्धति की आवश्यकता

1974 की बात है। मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी. एससी. का छात्र था। मुझे किसी प्रयोजन से कानपुर जाना पड़ा। कानपुर में प्रात: काल ही मुझे एक तेजाब बनाने वाली फैक्ट्री के निकट से गुजरना पड़ा। फैक्टरी से निकलने वाली तेज गैस मेरे नाक के द्वारा फेफड़े में प्रवेश कर गई। मुझे कुछ परेशानी होने लगी। दूसरे दिन से मेरे सिर में सवेरे से शाम तक दर्द रहने लगा। मैंने डॉक्टरों से दवाइयां ली, परंतु कोई उल्लेखनीय लाभ नहीं हुआ।

          विख्यात गणितज्ञ और समाजसेवी डॉ. बनवारी लाल शर्मा मेरे शिक्षक थे, उन्होंने मुझसे कहा कि मैं प्रोफेसर जे. के. मेहता से मिलकर अपनी समस्या उन्हें बता दूं। प्रोफेसर मेहता प्रख्यात अर्थशास्त्री रहे हैं और सेवानिवृत्ति के बाद वे इलाहाबाद (प्रयागराज) में ही रहते रहे और शौकिया हो्योपैथी की दवाई देते थे। उनसे विमर्श करने के लिए शहर के प्रतिष्ठित डॉक्टर भी आते थे। मैंने डॉ मेहता को अपनी समस्या बताई। डॉ. मेहता ने कुछ एक प्रश्न पूछे- जैसे मुझे मीठा अच्छा लगता है या नमकीन, मुझे ठंडक पसंद है या गर्मी और मेरा पांव ठंडा रहता है या गरम। इसके बाद उन्होंने मुझे तीन पुडिय़ा दवाइयों की दी और कहा कि मैं इसे सवेरे, दोपहर और शाम को खा लूं। दूसरे दिन मैंने वे दवाइयां खाई। कहना न होगा कि दूसरे दिन ही मुझे लाभ परिलक्षित हुआ और एक-दो दिन में ही मैं उस महीनों से चले आ रहे सिर दर्द से मुक्त हो गया।

          दूसरी घटना 1978 की है-  मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवक्ता हो गया था। मैं अपने एक सहयोगी के घर गया हुआ था। वहां उनके एक रिश्तेदार आए थे। रिश्तेदार महोदय को पेट में भयंकर पीड़ा होने लगी। एक एलोपैथी के डॉक्टर साहब बुलाये गये।डॉक्टर साहब ने कहा कि इनकी आँतें उलझ गई है। दर्द निवारण के लिए मैं कुछ दवाई दे दे रहा हूं। परंतु इन्हें जल्दी से जल्दी अस्पताल में भर्ती करके ऑपरेशन कराना होगा। देर करना इनका कष्ट बढ़ेगा। ऑपरेशन के अलावा इसका कोई इलाज नहीं है। इसी बीच कोई महानुभाव होम्योपैथिक के एक डॉक्टर साहब को बुला लाए। होम्योपैथी के डॉक्टर साहब अपना दवाइयों का बैग लेकर के आए। मरीज की स्थिति सुनी और एक दवाई दी और कहा कि इसे घोल कर के 15-15 मिनट पर दो - दो चम्मच इनको पिलाते रहिए। घंटे दो घंटे में इनकी तबीयत ठीक हो जाएगी। इस पर एलोपैथी वाले डॉक्टर साहब बोले- इससे क्या उलझी हुई आँते सुलझ जाऐंगी। होम्योपैथी के डॉक्टर साहब ने बड़े गर्व से कहा कि आप पेट के अंदर गए थे क्या आंतों को रिझाने के लिए जैसे उलझी हैं, वैसे ही सुलझ भी जाएंगे। यह कहकर वे अपना बैग लेकर पूर्ण आत्मविश्वास के साथ प्रस्थान कर गए। परिणाम देखने के लिए ऐलोपैथी वाले डॉक्टर साहब बैठे रहे। होम्योपैथी के डॉक्टर साहब का यह दर्प पूर्ण कथन अच्छा नहीं था। परंतु उनके कथन में अपनी विद्या के प्रति उनका विश्वास झलक रहा था। खैर, मरीज को वह दवा 15-15 मिनट के अंतराल पर दी जाने लगी और थोड़ी देर में मरीज की स्थिति सामान्य होने लगी। उन्होंने पूरा स्वास्थ्य लाभ कर लिया और ऑपरेशन की आवश्यकता नहीं पड़ी।

          तीसरी घटना मेरे पिता जी की है। 2007 की बात है- उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर शहर में रह रहे मेरे पिता जी पर लकवे का प्रकोप हुआ। उन्हें वाराणासी मेडिकल कॉलेज ले ही जाया जा रहा था कि वहीं के एक स्थानीय होम्योपैथ आ गये। डॉक्टर साहब ने कहा कि उन्हें दो घंटे का समय दिया जाय और यदि दो घंटे में लाभ न होने लगे, तब मेडिकल कॉलेज ले जांय। कहना न होगा कि दो घंटे में हीं लाभ दिखाई देने लगा और पिता जी धीरे - धीरे ठीक हो गये। जबान पर मात्र थोड़ा सा असर रह गया था। इन घटनाओं के बाद मैंने होम्योपैथी की किताबें जैसे मैटेरिया मेडिका और बायोकेमिक दवाओं आदि के विषय में पढऩा शुरू किया। परंतु न मैंने कभी कोई दवा अपने लिए स्वयं से ली और न मैंने कोई दवा अपने किताबी ज्ञान के आधार पर किसी को बताई। होम्योपैथी में दवा का चुनाव करने के लिए मानसिक लक्षणों के उपयोग से मैं प्रभावित हुआ।

          इंदौर में मेरा संपर्क होम्योपैथी के प्रोफेसर डॉ. ए. के. द्विवेदी साहब के साथ हुआ। मेरे छोटे बेटे डॉ. कृष्ण नारायण को बोलने में कुछ परेशानी हो रही थी। मुंह पूरा नहीं खुल पा रहा था। डॉ द्विवेदी ने उसे देखा और मुझसे कहा इसकी जांच ठीक से करा लें। मुझे गले का कैंसर लग रहा है। जांच के बाद कैंसर ही निकला। चुंकि, डॉक्टर द्विवेदी जी ने पहले बीमारी को पकड़ लिया था, मेरे बेटे का ऑपरेशन हुआ और वह पूरी तौर पर स्वस्थ होकर आज सामान्य जीवन व्यतीत कर रहा है। अब आती है मेरी बारी। मुझे समय-समय पर बुखार आ जाता था और हर महीने एक या दो बार मुझे बुखार आता ही था। डॉ द्विवेदी ने कहा कि मैं अपने पूरे शरीर की जांच करवा दूं, लगता है कि शरीर में कोई गंभीर बीमारी घर बना रही है। उन्होंने मुझे इशारे में यह भी बोल दिया कि मुझे कैंसर भी हो सकता है। बाद में जाचों के बाद पता चला कि मुझे बड़ी आंत का कैंसर है और वह बहुत विकराल रूप ले चुका है। ईश्वर की कृपा, डॉक्टरों के प्रयत्न तथा घर वालों की सेवा सुश्रुषा से आज मैं पूरी तौर पर स्वस्थ हूँ। शायद डॉक्टर द्विवेदी ने यदि यह अंदाज न लगा लिया होता कि मेरे शरीर में कैंसर होने की संभावना है, तो एक-दो महीने मैं यूं ही मैं बुखार की दवाई लेते हुए काट देता और हो सकता था कि मर्ज तब तक लाइलाज हो जाता। यदाकदा डॉ द्विवेदी की क्लीनिक में बैठ कर मुझे प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। उस बीच डॉक्टर द्विवेदी के मरीजों के विस्मयकारी संस्मरण उनके विषय में मैं सुनता रहता था। इंदौर में मेरी कीमोथेरेपी चल रही थी। कीमोथेरेपी देने वाले डॉक्टर राजेश पाटीदार थे। डॉ पाटीदार से मैंने पुछा कि €या मैं साथ-साथ होम्योपैथी की दवायें भी ले सकता हूँ? उन्होंने उत्तर दिया कि उन्हें होम्योपैथी दवाओं का कोई ज्ञान नहीं है। अत: वे इस विषय में कुछ नहीं कह सकते। मैंने फोन पर डॉ पाटीदार और डॉ द्विवेदी की बात कराई डॉ पाटीदार ने जानना चाहा कि क्या कोई होम्योपैथी दवाओं में कोई धातु(मेटल) होती है। डॉ द्विवेदी का जवाब था कि होम्योपैथी दवाओं में कुछ भी नहीं होता है। इनमें अति अल्प मात्रा में उसमें कुछ द्रव होते हैं जो सीधे तंत्रिकाओं (नसों) पर कार्य करते हैं और होम्योपैथी दवाएं पाचन तंत्र (डाइजेस्टिव सिस्टम) में भी नहीं जाती हैं। वे सीधे नसों के माध्यम से शरीर में जाकर अपना कार्य शुरू कर देती है। डॉ द्विवेदी से बात करने के बाद डॉ पाटीदार ने कहा कि तब तो मैं यह दवाइयां ले सकता हूं क्योंकि इनका कोई भी हस्तक्षेप उन दवाओं से नहीं है जो कीमोथेरेपी के लिए मेरे शरीर में डाली जाती हैं। मेरी कीमोथेरेपी 12 चक्रों में हुई। साथ ही साथ मेरे स्वास्थ्य के लिए अनेक प्रकार के पूजा-पाठ, यज्ञ हवन आदि भी हो रहे थे। मैं स्वयं भगवान शिव की आराधना करता था और महामृत्युंजय मंत्र का जप करता था अथवा उसका रिकॉर्ड सुनता रहता था। ईश्वर की कृपा, डॉक्टरों के प्रयत्न, अनेक प्रकार के यज्ञ-अनुष्ठान और घरवालों की सेवा से आज मैं कैंसर मुक्त हूँ और अपने जीवन के सामान्य कार्य कर रहा हूं। जहां तक होम्योपैथी का प्रश्न है, अधिकांश लोग जानते हैं कि इसके जन्मदाता डॉ हैनिमेन हैं। डॉ हैनिमेन स्वयं एलोपैथी में शिक्षित थे। उन्होंने एलोपैथी पद्धति पर कुछ एक गंभीर प्रश्न उठाए और इस अवधारणा को विकसित किया कि जिस तत्व से कोई व्याधी पैदा होती है, उसी से वह समाप्त भी हो सकती है। आयुर्वेद में भी यह बात आई है कि 'विषस्य विषमौषधम्' विष की दवा विष में ही होती है। उन्होंने इस आधार पर एक वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति, जो आज हो्योपैथी के नाम से जानी जाती है, विकसित की। दुनिया के कई देशों में एमबीबीएस करने के बाद ही कोई व्यक्ति होम्योपैथी का अध्ययन कर सकता है- अर्थात यह सुपर स्पेशलिटी मानी जाती है। परंतु दुर्भाग्य है कि इस प्रभावी और कम मूल्य वाली चिकित्सा पद्धति लोगों में लोकप्रिय नहीं हो पाई है। लोग होम्योपैथ के पास तब जाते हैं जब अनेक अन्य चिकित्सा पद्धतियों से उन्हें लाभ नहीं प्राप्त होता। यही स्थिति भारतवर्ष में आयुर्वेद की भी है। किसी बीमार की दिलचस्पी किसी चिकित्सा पद्धति में नहीं होती है। उसका उद्देश्य जल्दी से जल्दी स्वस्थ होना होता है। भारतवर्ष में या यूं कहें कि दुनिया में अनेक चिकित्सा पद्धतियां प्रचलित है - जैसे एलोपैथी, होम्योपैथी, आयुर्वेद, सिद्ध और यूनानी आदि।

          आज कई लोग अध्यात्म और मंत्र चिकित्सा भी करते हैं। इसमें से कोई भी पद्धति पूर्ण नहीं। यदि कोई एक पद्धति की पूर्णता प्राप्त कर लेती तो कदाचित दूसरी अन्य पद्धतियां या तो स्वयं समाप्त हो जातीं या पैदा ही न होतीं। आज समय की आवश्यकता है कि हर विधा के निपुण चिकित्सक आपस में विमर्श करें और एक समेकित चिकित्सा पद्धति का विकास करें। हो सकता कि कुछ रोगों की दवा एलोपैथी में न हो और वह अन्य चिकित्सा पद्धतियों में। आयुर्वेद, यूनानी अथवा सिद्ध में उसकी दवा हो। ध्यान, योग, मंत्र और यज्ञ में भी रोग निवारण की शक्ति है। बीमार के हित में यह आवश्यक है कि हम चिकित्सा पद्धतियों की पवित्रता का हठ छोडक़र रोगी को शीघ्र और प्रभावी रूप से स्वस्थ करने के बारे में विचार करें। डॉक्टरों को चिकित्सा पद्धतियों के घरौंदों से निकलना होगा। सब को मिलकर एक समेकित चिकित्सा पद्धति विकसित करनी होगी। अपनी चिकित्सा पद्धति की श्रेष्ठता अहंकार चिकित्सकों को एक दूसरे से संवाद नहीं करने देता और वह अपनी पद्धति पर ही डटे रहते हैं। कोई एलोपैथी की आलोचना करता है तो कोई आयुर्वेद की और कोई होम्योपैथिक। लोगों को अहार और योग के द्वारा भी स्वस्थ होते देखा गया है। न कोई पद्धति पूर्ण है और न ही कोई व्यर्थ है। मनुष्य के हित में है कि एक ऐसी समेकित चिकित्सा पद्धति विकसित की जाय जिसमें सारी पद्धतियों का उचित समावेश हो। कदाचित, देश में बना नया आयुष मंत्रालय इस दिशा में पहल करे और एक समेकित चिकित्सा पद्धति विकसित कराये जो प्रभावी रूप से आम लोगों के स्वास्थ्य का संरक्षण कर सके।

डॉ. प्रभु नारायण मिश्र

प्रबंधन गुरु तथा अध्यात्म एवं मंत्र चिकित्सा मर्मज्ञ